हिंगलाज माता का इतिहास और कथा Hinglaj Mata Mandir Pakistan History And Story

देश के इक्यावन शक्तिपीठों में पाकिस्तान के पश्चिम में बलूचिस्तान में स्थित हिंगळाज का स्थान ही प्रथम शक्तिपीठ है।
यहां पर सती के ब्रह्मरंघ्र वाले भाग के गिरने की मान्यता है। कुछ कटि व जघन वाले भाग के गिरने की मान्यता रखते हैं ।

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यहां पर ब्रह्मरंध्र वाले भाग के गिरने की मान्यता का ही तन्त्र चूड़ामणि एवं मेरू तन्त्र आदि ग्रन्थ समर्थन करते हैं ।
हिंगलाज को आदिशक्ति या महाशक्ति माना जाता है । यह प्राकृतिक शक्ति है ।

इंटरनेट पर GoogleWikipedia और Facebook   पर हिंगलाज माता के बारे में बहुत अलग अलग जानकारियां दी गई है।

हिंगलाज माता का इतिहास और कथा

Hinglaj Mata Mandir Pakistan History

 चारणों में ऐसी मान्यता भी है कि सर्वप्रथम आद्याशकि्ति के रूप में चारण जाति में ही हिंगळाज का अवतार हुआ था। गौरविया शाखा के चारण हरिदास के घर नगर थट्टा में भगवती हिंगळाज का अवतार हुआ था। आज भी चारण समाज एवं उदासीन सम्प्रदाय के संन्यासियों में यह मान्यता है कि नगर थट्टे के हिंगळाज मन्दिर की यात्रा मूल हिंगळाज की यात्रा के बराबर ही मान ली जाती है।

 इस प्रकार पौराणिक देवी हिंगळाज और यह चारण देवी हिंगळाज आपस में इतनी घुल-मिल गई हैं कि इन्हें अलग-अलग करना भी सम्भव नहीं रहा है। हाँ, चारणों में यह मान्यता खूब प्रचलित है कि चारण जाति में जितने शक्ति के अवतार हुए हैं वे सब हिंगळाज के पूर्ण या खण्ड अंश को लेकर ही अवतरित हुए हैं।

 चारणों में हिंगळाज दान नाम रखने की परम्परा आज भी प्रचलित है । चारणों व अन्य शक्ति उपासकों के हिंगळाज के मूल स्थान तक जाने के यात्रा विवरण भी मिलते हैं। राजस्थानी में हिंगळाज दान कविया की प्रख्यात रचना दुर्गा बहत्तरी में पर्याप्त संकेत मिलते हैं । बंगला भाषा में कालिका नन्द अवधूत कृत 'मरु तीर्थ हिंगळाज' नामक पुस्तक प्रसिद्ध है ।

हिंदी में देवदत्त शास्त्री कृत 'आग्नेय तीर्थ हिंगळाज' नामक पुस्तक प्रसिद्ध है । अे. अे. ब्रोही एवं रामचन्द्र एस. वर्मा के आलेख व 'हिंगलाज यात्रा' नामक पुस्तक में भी विवरण मिलते हैं।

Hinglaj Mata Yatra
हिंगलाज देवी यात्रा

जैसलमेर के एक मन्दिर में हिंगळाज देवी की मूर्ति के नीचे 'सातां दीप री राय श्री हिंगळाज' शब्द अंकित हैं। सातां द्वीप फारस की खाड़ी में पहाड़नुमा एक छोटा-सा है। जहाँ देवी हिंगळाज की अखण्ड ज्योति जलती रहती है तथा उसका टापू प्रतिबिम्ब शरण हिंगळाज की गुफा में प्रतिबिम्बित होता रहता है। यह शरण हिंगळाज का स्थान बलूचिस्तान के कलात प्रदेश के लसबेला क्षेत्र की सम्माकलर तहसील में हिंगोळ नदी के किनारे पर स्थित है।

 सिन्धु नदी के मुहाने से करीब 122 किलोमीटर पश्चिम तथा अरब सागर से 18 किलोमीटर उत्तर में जहाँ मरकान तथा लस अलग-अलग होते हैं वहाँ पहाड़ी की अंधेरी गुफा में हिंगळाज देवी का स्थान है। इस क्षेत्र में हिंगळाज के बावन स्थान है, जिसमें प्रमुख स्थान शरण हिंगळाज ही माना जाता है।

 शरण हिंगळाज का पहाड़ द्वितीया के चन्द्रमा के से आकार का है । दीवारनुमा पहाड़ है। बायीं तरफ शुंभ कोट तथा दायीं तरफ निशुंभ कोट है । मध्य में शरण हिंगळाज की गुफा व कुण्ड है । वहीं पर हिंगळाज देवी के प्राकृतिक महल बने हुए हैं।

 ये यक्षों के बनाए हुए 'माई के महल ' कहलाते हैं। पैंतीस चालीस हाथ ऊँची रंग-बिरंगी छत। रंग-रंगीले लटकते पत्थरों का प्राकृतिक दृश्य । रंग-बिरंगा आँगन, जिस पर भाँति-भाँति के प्राकृतिक चित्र अंकित हैं ।

 एक तरफ मखमल जैसी हरी-भरी दूब का ऑगन तो दूसरी तरफ अनगिनत फूलों के झाड सारे वातावरण को सुगन्ध से भर देते हैं । पास ही दूध-जैसा सफेद निर्मल पानी मुस्कराता झर रहा है। तथा बुद्धि ठगी-सी रह जाती है । बैसाख महीने की मेष संक्रान्ति पर यहाँ विशाल मेला भरता है।

 मुसलमानों में हिंगळाज देवी लाल चौले वाली माई व नानी के नाम से प्रसिद्ध है। दूर-दूर से मुसलमान नानी की हज करने व बावन स्थानों की परिक्रमा करने आते हैं। लाल कपड़ा, इत्र व अगरबत्ती इत्यादि चढ़ाकर पूजा करते हिंगळाज का हिंगळू से भी पूजन होता है । हिंगळाज देवी की पूजा जुमन खॉप के मुसलमान करते हैं। नगर थट्टे में भी पूजा जुमन खॉप के मुसलमान करते हैं। हिंगळाज देवी की पूजा करने का अधिकार जुमन खाँप की ब्रह्मचारिणी कन्या को मिला हुआ है।

वह चांगळी माई कहलाती है। ये बलोच शाखा के ब्रोही मुसलमान हैं जो चारणों से ही मुसलमान बने हुए हैं तथा अपने को चारण मुसलमान ही कहते हैं । इनमें चांगळी माई साक्षात शक्ति स्वरूपा ही मानी जाती है। चांगळी माई अपना हाथ नई कन्या के सिर पर रखकर नई चांगळी माई तय करती है तथा उसे हिंगळाज देवी की पूजा का अधिकार प्रदान करती है।

Hinglaj Ma ni varta
 साथ ही माई की ज्योति जलाने का आशीर्वाद देती है । इसी परिवार का मुखिया कोटड़ी का पीर कहलाता है। हिंगळाज देवी की गुफा ही कोटड़ी कहलाती है।

 पहले हिंगळाज देवी की यात्रा करांची (पाकिस्तान) के नागनाथ के अखाड़े से ऊँटों के माध्यम से व पैदल होती थी। छड़ीदार (अगवा) साथ रहता था । चालीस-पचास यात्री झरना कल-कल की ध्वनि से सुमेरियन देवी में यात्रा के लिए निकलते थे । पहले छड़ीदार करांची के भारती साधु होते समूह थे। यह निहंगों की गद्दी थी । अब छड़ीदार गृहस्थ होते हैं और वे ऊथल में रहते हैं ।

 अब छड़ी लसबेला में जसराज की मंढी से उठती है। छड़ीदार गुसाई है, वैसे अब लयारी और हिंगोळे तक बस भी जाने लगी है। हिंगोळा से आगे ऊँट पर बैठकर जाने में सात-आठ घण्टे लगते हैं । पहले हिंगळाज यात्रा में डेढ-दो महिने लगते थे । पहले सोनमैनी के रास्ते से जाते थे अब लयारी के रास्ते से जाते हैं।

 हिंगळाज की यात्रा बड़ी दुर्गम है। विकट मार्ग से गुजरते हुए यात्री को कठोर साधना तथा शारीरिक व मानसिक कष्टों से गुजरना होता है। आग का दरिया पार करना पड़ता है। मीलों तक कई दिनों तक कभी ऊँट की पीठ पर बैठकर, कभी पैदल, प्यासे गले, खाली पेट, गर्म रेगिस्तानी हवाओं और बवंडरों के बीच चलकर जाना होता है।
Hinglaj Mata
 रास्ते में एक गुरु-शिष्य का स्थान भी आता है। जिसकी अपनी कथा है। हिंगळाज जाने वाले तीर्थयात्रियों के लिए एक परम्परा यह है कि प्रत्येक यात्री को अपने पीने के पानी के लिए अपनी सुराही में पानी भरकर ले जाना होता है । एक यात्री की सुराही का पानी दूसरा यात्री नहीं पी सकता चाहे पिता-पुत्र ही क्यों न हो।

 गुरु-शिष्य यात्रा पर थे तो गुरु शिष्य वाली सुराही से माँगकर पानी पीते जाते थे । सुराही का पानी समाप्त होने पर शिष्य ने गुरु से पानी माँगा पर गुरु ने पानी पिलाने से इन्कार कर दिया। पानी-पानी करते शिष्य का प्राणान्त हो गया। उसी समय गुरु की सुराही भी उसी स्थान पर फूट गई तथा गुरु भी सदा के लिए वहीं मरुभूमि में सो गए । उसी स्थान पर गुरु-शिष्य की शिलाएँ हैं जिनकी पूजा करके यात्री आगे रवाना होता है।

 इससे आगे चन्द्रकूप नामक स्थान आता है। इस स्थान की भी अपनी महिमा है। यहीं से हिंगळाज यात्रा का आदेश लेना पड़ता है। चन्द्रकूप पहाड़ों के बीच भस्मी (विभूति) का मंदिरनुमा छोटा पहाड़ है। नीचे गोलाई का घेरा तीन किलोमीटर का तथा ऊपर आते-आते यह घेरा सौ-डेढ़ सौ मीटर रह जाता है । घेरे में दलदली ज्वालामुखी। जो निरन्तर खौलता रहता है। भाप निकलती रहती है।

 इस घेरे में साक्षात् पानी से बने शिवलिंग के दर्शन होते हैं। काली ने जब सृष्टि का संहार किया तो शिव ने चन्द्रकूप से पानी का फवारा फेंका तो (काली अग्निरूप तथा शिव जल रूप होता है) वैसे पहाड़ बन गए। इस स्थान पर पहुँचकर यात्री नारियल हाथ में लेकर अपने सम्पूर्ण जीवन में किए पापों की स्वीकारोक्ति करते हुए भाप उठते, खदबदाते दलदली घेरे में बनते शिवलिंग पर नारियल फेंकते हैं।

Hinglaj Devi

 स्त्री हत्या, भ्रूण हत्या जैसे भयानक पापों की स्वीकारोक्ति सबके सामने जोर से बोलकर करते हैं। यदि जानबूझकर पाप छिपा लिया तो नारियल डालते ही दलदल में बुलबुले उठना बन्द हो जाता है तथा नारियल ऊपर ही पड़ा रह जाता है । ऐसे व्यक्ति को हिंगळाज यात्रा के लिए अपात्र मान लिया जाता है। जिस यात्री का नारियल दलदल में समाविष्ट हो जाता है उसे आगे की अनुमति का प्रतीक माना जाता । जिस यात्री का नारियल दलदल वापिस बाहर फेंक देता है वह यात्री बहुत सौभाग्यशाली माना जाता है।


 अगले पहाड़ पर अघोरकुण्ड आता है। पहाड़ के पास हिंगोळ नदी द्वारा दिए गए घुमाव या चक्र से यह कुण्ड बना है। यहाँ से हिंगळाज देवी का स्थान पच्चीस किलोमीटर है। अषोरकुण्ड से हिंगळाज तक यह नदी तीन बार रास्ते में आती है। कहीं पानी मीठा है तो कहीं खारा। नदी एक ही है ।

 हिंगळाज के मूल स्थान तक पहुँचने के लिए शुंभ-निशुंभ के दीवारनुमा पहाड़ वाले कोट तक पहुँचने के लिए पहले उत्तर की तरफ चलना पड़ता है फिर पश्चिम की तरफ चलना पड़ता है। फिर हिंगळाज की के आगे पहुँचकर रात्रि जागरण कर शरण कुण्ड में स्नान कर नये कपड़े धारण कर पूजा की सामग्री लेकर गुफा में जाना पड़ता है।

गुफा के अन्दर हिंगळाज देवी का मुख्य स्थान है। जहाँ सिन्दुरावेष्टित लाल कपड़े गुफा से शृंगारित हिंगळाज देवी का प्रस्तर है। जिसके आगे अखण्ड ज्योति प्रतिबिम्बित होती रहती है। वहीं मन्त्र बोलकर छड़ीदार पूजा करवाता है। पूजा के बाद दान-पुण्य करके कोटड़ी के पीर की आज्ञा से गर्भ योनि में से निकलना पड़ता है।

 हिंगळाज देवी के थान के नीचे बायीं तरफ की मोरी से एकदम नग्न अवस्था में दो-दो यात्रियों की जोड़ी से दायीं तरफ की मोरी से निकलना पड़ता है। घुटनों के बल गर्भ योनि से निकलते ही चांगळी माई पहनने के लिए कपड़ा व प्रसाद स्वरूप गुड़ व चन्दले की घुट्टी देती है।

 कोटड़ी का पीर ठूमरों की माला पहनाते हुए कहते हैं कि अद्भुत, अपूर्व व अनिवर्चनीय इस आत्मानुभव को आत्मा में धारण किए रखना। अलग मत करना। इसके बाद यात्री दुबारा जन्मा व निष्पाप मान लिया जाता है । साथ का जोड़ीदार धर्म का भाई कहलाता है। पुनर्जन्म के बाद यात्री कापड़िया कहलाता है ।

हिंगलाज की लड़ाई

 गर्भ से बाहर आने पर कोटड़ी के पीर गुफा के शिखर पर लटकती एक बड़ी  शिला पर भगवान राम के हाथ से अंकित सूर्य और चन्द्र दिखाते हुए कहते हैं कि यहाँ आकर ही भगवान राम, ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हुए थे। इसके बाद त्रिकुण्ड (शिव कुण्ड, ब्रह्म कुण्ड व क्षीर कुण्ड) में स्नान होता है। शिव कुण्ड, तिला कुण्ड व क्षीर कुण्ड विष्णु कुण्ड भी कहलाता है।

 तिला कुण्ड में तिल मुट्ठी में लेकर नहाते हैं, बाहर निकलने पर काले तिल सफेद हो जाते हैं । इसके बाद चौरासी का रास्ता तय करना पड़ता है जिसे आकाशगंगा की यात्रा भी कहते हैं। अन्त में अल्लील ( हलील) कुण्ड स्नान होता है।

 यह कुण्ड पहाड़ के अन्दर कुएँ जैसा है । यह पाताल तोड़ तथा आपस में दो गोलाकार घेरों से मिलकर बना हुआ है। छड़ीदार पत्थर का बना बिना छेद का मनका जिसे ठूमरा कहते हैं अल्लील कुण्ड के अन्दर डाल देता है जिसे यात्री तले तक डुबकी लगाकर ढूँढ़कर निकाल लाता है।

 मंगल गिरि आश्रम खैरथल (अलवर) के महात्मा ध्यान गिरि जी एवं बीकानेर के एक गृहस्थ माहेस्वरी महाजन करनाणी जी इस तीर्थयात्रा के जीवंत साक्षी के प्रतीक रूप में आज भी हमारे बीच मौजूद हैं।

 पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दू एवं बलोच (ब्रोही) मुसलमान आज भी हिंगळाज की तीर्थयात्रा करते रहते हैं। सातां द्वीप में पशनी बन्दरगाह से नाव में सवार होकर जाना पड़ता है। कलात में काली का प्रसिद्ध स्थान है। लसबेला के मुखिया जाम साहब कहलाते हैं।

चारण जाती में होने वाली देवियां हिंगलाज देवी का ही अंश मानी जाती है। आवड़ माता, करणी माता, आदि देवियां हिंगलाज माता का ही अंश और अवतार माना जाता है।

आवड़ माता के पिता श्री मामड़ जी निसंतान थे तो उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए मां हिंगलाज की 7 बार यात्रा की अंत में मा हिंगलाज ने उनको आशीर्वाद दिया कि वो खुद उनके घर में प्रकट होंगे ।
करणी माता जी के पिता जी श्री मेहो जी ने भी संतान प्राप्ति के लिए हिंगलाज यात्रा की उस से खुश होकर देवी ने अवतार लिया।
आवड़ माता और करणी माता का विस्तार से वर्णन यहां आप पढ़ सकते हो।

 राजस्थान, गुजरात, हिंगलाज माता मंदिर बाड़ी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं हरियाणा आदि प्रान्तों में मुख्य रूप से तथा देश के अन्य भागों में भी हिंगळाज देवी के अनेक मन्दिर हैं।

Hinglaj Mata Mandir -
 जिनमें कुछ का  विवरण इस प्रकार है :-  सबसे प्राचीन और प्रसिद्ध हिंगळाज मन्दिर जैसलमेर के पास स्थित लुद्रवा नामक स्थान पर है।
 जैसलमेर में भी किले के अन्दर हिंगळाज मन्दिर है। जैसलमेर के घड़सीसर तालाब के मध्य हिंगळाज की साळ है ।

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हिंगलाज माता मंदिर सिवाणा राजस्थान
 बाड़मेर जिले के सिवाणा तहसील से 12 किलोमीटर दूर छप्पन की पहाड़ियों की कोयलिया नामक गुफा में अष्टभुजी सिंह वाहिनी भगवती हिंगळाज माता की मूर्ति स्थापित है । मूर्ति के चरणों में निर्मल जल का झरना बहता है। गुफा में ही काले भंवरों के छत्ते हैं। यह स्थान प्राकृतिक छटा की दृष्टि से रमणीक एवं आकर्षक है । यह स्थान थान माता हिंगळाज के नाम से प्रसिद्ध है। दोनों नवरात्रों में देवी के जुहारे लेकर पूरी तहसील में यात्रा की जाती है। मन्दिर गढ सिवाणा के राजा वीरसेन द्वारा बनाया हुआ है। पुजारी पुरी संन्यासी हैं ।

 सीकर जिले की फतेहपुर कस्बे की बुद्ध गिरी जी की मढ़ी में भी हिंगळाज देवी का पुराना मन्दिर है । जिसका ओरण (बीड़) बहुत ही बड़ा है ।
 इसी भाँति चूरू जिले के ल्होसणा बड़ा नामक गाँव में भी हिंगळाज देवी का मन्दिर व बड़ा ओरण है।
 चुरू जिले के ही बीदासर कस्बे में भी नाथों के अखाड़े में हिंगळाज देवी का पुराना मंदिर है ।

 फालना के निकट मन्दिरनुमा पहाड़ी पर भी प्रसद्ध हिंगळाज मन्दिर है ।
 अजमेर जिले में अराई से पूर्व पहाड़ी पर हिंगळाज का मन्दिर है । अजमेर नगर में भी दाहीरसेन स्मारक में हिंगळाज मन्दिर है।

 बीकानेर के पास कोलायत में भी प्राचीन हिंगळाज मन्दिर है ।

हरियाणा की सीमा कोल्हापुर एवं यवत माल जिलों में पहाड पर गढ़ हिंगळाज के नाम से प्रसिद्ध मन्दिर है।

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 हिंगळाज शक्तिपीठ की अनुकृति में निर्मित हिंगळाज गढ़ का उल्लेख भी अप्रासंगिक न होगा, राजस्थान की सीमा से लगे भानपुरा (मंदसौर मध्य प्रदेश ) से गांधी सागर जाने वाल मार्ग पर नावली नामक गांव से आठ किलोमीटर दूर कच्चे रास्ते पर गहरी घाटियों के मध्य छोटी-सी पहाड़ी पर स्थित यह गढ हिंगळाज की आराधना स्थली रहा है। उस मान्दिर में हिंगळाज देवी महिषासुरमर्दिनी के रूप में प्रतिष्ठित है । बिंध्य प्रदेश में दसवा-ग्यारहवीं शताब्दी में निर्मित महिषासूर मर्दिनी की प्रतिमा में देवी का नाम 'हिगुल देव्या' अकित है।

 इसी प्रकार राजस्थान से बाहर गुजरात, सिंध, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, हारयाणा, पंजाब एवं दिल्ली आदि प्रान्तों में हिंगळाज देवी के अनेक मन्दिर एवं स्थान है, अहाँ बड़े-बड़े मेले लगते हैं। चारणों के गाँवों में तो हर जगह हिंगळाज देवी का मन्दिर या थान होता है।

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हिंगलाज माता का इतिहास और कथा 
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जय हिंगलाज माता ।

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13 टिप्पणियाँ

  1. हुकुम आप को बहुत बहुत धन्यवाद

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  2. जय जय हिंगलाज माता आप हम पर कृपा करें आपकी कृपा हमारे परिवार में सदा बनी रहे

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  3. "वह चांगळी माई कहलाती है। ये बलोच शाखा के ब्रोही मुसलमान हैं जो चारणों से ही मुसलमान बने हुए हैं तथा अपने को चारण मुसलमान ही कहते हैं । इनमें चांगळी माई साक्षात शक्ति स्वरूपा ही मानी जाती है। चांगळी माई अपना हाथ नई कन्या के सिर पर रखकर नई चांगळी माई तय करती है तथा उसे हिंगळाज देवी की पूजा का अधिकार प्रदान करती है।"

    यह जानकारी आपको कहाँ से मिली है कृपया बताएं। किसी किताब से या किसी वैबसाइट से हो तो उसका नाम बताएं।

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  4. Meri bhi kuldevi hinglaj mata hai me sepahu rajpurohit hu adress,oon,gav Ahoore tesil, district Jalore Rajasthan,he hamare gav me bhi mata hinglaj ka bhaviy mandir hai,jai mata hinglaj

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