आवड़ माता का इतिहास कथा मंदिर
Awar Mata History In Hindi
चारणों में यह देवी हिंगळाज के पूर्ण अवतार के रूप में विख्यात है। बाड़मेर जिले की धोरी मन्ना तहसील से छः कोस दूर साहुवा शाखा के चारण चाळक ने अपने नाम से एक ग्राम आबाद किया जो चाळकनूं कहलाता है।
इसी चाळकनूं ग्राम में म्हादा के पुत्र मामड़ के घर महडू शाखा की चारण मोह वृत्ति की कुक्षि से आवड़ देवी का जन्म संवत् 888 वि. की चैत्र सुदी नवमी शनिवार को हुआ था ।
चाळकनूं ग्राम के पास जूंनी जाळ के नाम से विख्यात सात जाळों वाले स्थान पर आवड़ देवी के जन्म की लोक प्रचलित मान्यता है। इसीलिए इस देवी का चाळकनेची चाळकराय नाम विख्यात हुआ। कुछ लोग इनका जन्म ननिहाल माढवा में भी मानते हैं जो पहले महड़ू चारणों का शासन (स्वयं शासन जागीर) था । कुछ लोग इनका जन्म-स्थान झोकरवाड़ा नामक स्थान भी मानते हैं।
चाळकनूं ग्राम में आवड़ देवी का कलात्मक खम्भों वाला खण्डहर मन्दिर आज भी मौजूद है। वहाँ सिंह पर सवार चतुर्भुजी मूर्ति है। एक हाथ में तलवार, एक से आशीर्वाद, एक में चक्र व एक में खप्पर लिए हुए है।
आठवीं शताब्दी में हूंण आक्रमणकारियों से सारा क्षेत्र आतंकित था । हूंण बड़े निर्दयी थे। ये मनुष्यों के सिर काट-काटकर झूले लगा देते थे। गाँवों को जला देते थे । पशुओं को खा जाते थे । आज भी हमारे यहाँ कहावतें चलती हैं कि 'क्यूं थारी हूंण बोलै है', थारी हूंण आयगी। राक्षसी कृत्य करने के कारण ये हूंण देत्य कहलाने लगे ।
आवड़ देवी ने इन्होंने बावन हूंण राक्षसों को मारा, जिनमें से तेमड़ा, घण्टिया आदि कुख्यात हूंण राक्षस थे। इसीलिए बावन ही इनके पवाड़े, बावन ही नाम, बावन ही मन्दिर तथा बावन ही ओरण हैं।
जैसलमेर राजघराने की तो ये कुलदेवी हैं। ये सात बहिनें थीं। सातों ही शक्ति का अवतार मानी जाती हैं। इसीलिए एक ही शिला पर सातों बहिनों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की हुई मिलती हैं। काष्ठ फलक पर भी सातों बहिनों की आकृतियाँ अंकित मिलती हैं। अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग बहिनों की पूजा होती है। इनकी पूजा हिन्दू-मुसलमान समान रूप से करते हैं।
आवड़ देवी ने सिंध के ऊमर सुमरा के राज्य का नाश किया जिसके बारे में यह मान्यता है कि इनके रूप पर मोहित होकर उसने विवाह का प्रस्ताव रखा था, जिसे अस्वीकार कर वहाँ से पलायन कर जैसलमेर के पास गिरळाओं नामक पर्वत पर तेमडा नामक हूंण राक्षस को नष्ट कर वहीं निवास किया और तेमड़ा राय के नाम से प्रसिद्धी पाई।
Temda Rai Mata Mandir
तेमड़ा राय माता मंदिर
तेमड़ा राय का मन्दिर जैसलमेर से 21 किलोमीटर (सात कोस) दक्षिण में गिरळाओं नामक पहाड़ पर स्थित है । जैसलमेर से पक्की सड़क बनी हुई है । यह स्थान हिंगळाज के बाद सबसे बड़ा शक्तिपीठ माना जाता है। यह स्थान दूसरे हिंगळाज के नाम से भी पुकारा जाता है।
तेमड़ा पर्वत पर एक बड़ी गुफा है। इसी में आवड़ देवी का स्थान है। यह गुफा भीतर से बहुत बड़ी है जिसको आवड़ देवी ने स्वयं एक शिला द्वारा बन्द कर दिया। यह शिला तारंग शिला के नाम से प्रसिद्ध है। श्रद्धालु जन आज भी इस शिला के दर्शन करते हैं। ऐसी किंवदन्ती है कि यह गुफा पश्चिम में हिंगळाज देवी की गुफा से जुड़ी हुई है जिन पर सात देवियों की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं ।
मुख्य मन्दिर गुफा के सामने एक बुर्जाकार भवन पर बनाया गया है। बीकानेर के महाराजा रायसिंह ने तेमड़ा राय की यात्रा की स्मृति में इस बुर्ज का निर्माण कराया था। कालान्तर में इस बुर्ज का विस्तार व अन्य निर्माण कार्य भी होते रहे । जो देवी के भुरज बंगले के रूप में ही विख्यात है।
पहाड़ की तलहटी में एक छोटा-सा तालाब है जिसे कुण्ड कहा जाता है । इसी में स्नान कर यात्री ऊपर देवी के दर्शनार्थ जाता है । ऊपर भी एक कुण्ड बना हुआ है। कुछ भवन भी बने हुए हैं। मुख्य मन्दिर में सिंहवाहिनी अष्टभुजा वाली देवी की प्रतिमा है। गुफा में ही देवी का पालना भी है। एक पीतल की घण्टिका वि. सं. 1885 की महारावल श्री गजसिंह जी जैसलमेर द्वारा चढ़ाई हुई है।
आवड़ माता का इतिहास कथा मंदिर
Awar Mata History In Hindi
तेमडा राय के भुरज बंगले का शिलालेख महारावल जुंहारसिंह जैसलमेर के समय का है। महारावल मूलराज जैसलमेर का भी एक शिलालेख है। जिसका पाठ इस प्रकार है-
श्री आदि देव्यै नमः। श्री आवड़ादि सप्त देव्यै नमः । श्री डूंगरेचियां रे थांन पर साळ कराई महाराजाधिराज महारावल श्री मूलराज मिती वैसाख बदी 4 संवत 1634 में महारावल अमरसिंह जी जैसलमेर ने तेमड़ा राय के पहाड़ की पाज बंधाई. तथा बुर्ज का जीर्णोद्धार करवाया।
महारावल जसवन्तसिंह जी जैसलमेर ने ऊपर वाली बुर्ज का निर्माण 1760 में करवाया जिसका शिलालेख बाहर वाली साल के खम्भे पर अंकित है । इस प्रकार महारावल देवराज से लेकर जुंहारसिंह जी तक निर्माण कार्य होते रहे तथा अन्य लोगों के सहयोग का भी जुंहारसिंह जी के शिलालेख में उल्लेख मिलता है। मुख्य मन्दिर के खम्भे पर विक्रम सं. 1432 का अस्पष्ट आलेख है। मूलचन्द ठेकेदार बाड़मेर वाले की धर्मशाला बनाई हुई है। ऊपर जाने के लिए खुर्रा व सीढ़ियाँ बनी हुई हैं।
भोपां गाँव के गोगलिया भाटी देवी के पुजारी हैं। तेमड़ा राय का बड़ा मेला भाद्रपद शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी की रात्रि को व चतुर्दशी को दिन में भरता है। इसी प्रकार माघ महीने की त्रयोदशी व चतुर्दशी को भी बड़ा मेला भरता है। वैसे तो हर रोज ही दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है। नवरात्रों में भी खूब दर्शनार्थी आते हैं।
उसी क्षेत्र में आवड़ देवी के अनेक नाम प्रचलित हैं । उनकी भी अपनी- अपनी अन्तर्कथाएँ हैं । कुछ का विवरण इस प्रकार है -
सूमरों का राज्य नष्ट कर आवड़ देवी ने दक्षिणी पंजाब के सम्माणा क्षेत्र के भाटी क्षत्रियों को दिया जिसका उपकार सम्मा के वंशज सामेचा व जाड़ेचा क्षत्रिय अब तक मानते हैं।
सम्मा सट्टा व सम्माणा सामेचा (सम्मा) क्षत्रियों में जाम सम्मा की दसवीं पीढ़ी में जाम लखियार के शासन में थे जाम लखियार को, राज्य प्रदान शा पूरी करने के कारण आवड़ देवी उनमें आशापूरा राय के नाम से पूजी जाती हैं तथा समस्त सामेचा जो अपने पूर्वज जाम जाडा के नाम से जाड़ेचा कहलाते हैं। आवड़ देवी को इसी नाम से सम्बोधित करते हैं एवं कुल देवी मानते हैं।
Tanot Mata Mandir
तणोट राय मंदिर
राव तणु ने आवड़ देवी की आज्ञा व आशीर्वाद से कोटनुमा मन्दिर व किला बनवाया तथा उसे अपनी सुरक्षा की ओट सदृश माना। इसीलिए वहाँ आवड़ देवा तणोट राय के रूप में पूजी जाती है। आवड देवी के हाथों से ही इस मन्दिर व कोट की प्रतिष्ठा हुई। तणोट जैसलमेर से 114 किलोमीटर दूर सीमा पर स्थित स्थान है जा पक्की सड़क से जुड़ा हुआ है।
पहले मन्दिर की पूजा जैसलमेर राज्य की तरफ से होता थी। शाक द्विपीय (सेवग) ब्राह्मण बारी-बारी से सेवा करते थे । अब सीमा सुरक्षा बल का पुजारी पूजा-अर्चना करता है। अब सेना के जवानों की आराध्या देवी के रूप में आवड़े देवा को बहुत मान्यता हो गई है।
भारत-पाक यद्ध के बाद भारतीय सेना द्वारा मन्दिर का जीर्णोद्धार करवा दिया गया है। युद्ध सम्बन्धी बहुत से चमत्कारों का धटन भी लोक-प्रचलित हो गई हैं। उस यद्ध में पकडे गए पाकिस्तानी ब्रिगेडियर हुर्सन राह ने देवी के चमत्कार की बात स्वीकार की थी ।
Swangiya Mata Mandir
स्वांगिया माता मंदिर
राव तणु को सांग (शक्ति-तलवार) पर बिराजकर दर्शन देने के कारण आवड देवी सांगियां (सांहांधै, सहांगीयां) देवी के रूप में मान्य हुई। जैसलमेर से तीन किलोमीटर उत्तर पर्व की तरफ समतल पहाड़ की चोटी पर सांगियां जी का मन्दिर बना हुआ है। भाद्रपद माघ व नवरात्रों में मेले लगते हैं। सेवग ही पूजा-अर्चना करते हैं। मन्दिर के मुख्य द्वार पर महारावल रणजीत सिंह द्वारा करवाए गए निर्माण कार्य का शिलालेख भी लगा हुआ है।
राव तणु के पुत्र विजयराज ने आवड़ देवी की आज्ञा से बींजणोट नामक नगर वसाकर एक बहुत बड़ा किला बनाया, जहाँ आवड़ देवी का बहुत बड़ा मन्दिर बनाकर मूर्ति स्थापित की तथा नाम बींजासण माता रखा। आवड़ देवी आदि सातों बहिनें ही बींजासण माता कहलाती हैं। उस मन्दिर में सातों बहिनों की अलग-अलग प्रतिमाएँ स्थापित की थीं,जिनमें से अब केवल चार शेष हैं।
विजय राज को आवड़ देवी द्वारा सोने की चूड़ देने की भी लोक-मान्यता है। चूड़ के ही कारण विजयराज चूड़ाळा (चूड़ वाला) विजयराज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सुगन चिड़ी (सोनचिड़ी) या रूपा रेल को भी आवड़ देवी का ही स्वरूप समझा जाता है। इसी कारण जैसलमेर राज्य के राजचिह्न में सांग (शक्ति ) लिए हुए और चूड़ पहने आवड़ देवी के दाहिने हाथ पर शकुन चिड़ी का स्थान रहा है ।
Bhadariya Ray Mandir
भादरिया राय मंदिर
आवड़ देवी अपने एक भक्त बहादुरा नामक भाटी (राव तणु के छोटे भाई) की सामान्य-जन की तरह से की गई सेवा से प्रसन्न होकर वहाँ पर उसी के नाम से अपनी पहचान कायम कर भादरिया (बहादुरिया) राय के नाम से प्रसिद्ध हुई।
जहाँ पर जैसलमेर के महाराजा को भी वर्ष में दो बार अनिवार्य रूप से दर्शनार्थ जाने की परम्परा थी यहीं पर राव तणु ने सर्वप्रथम देवी के दर्शन किए थे । यह स्थान बोर टीबे के रूप में प्रसिद्ध है। आज भी चौबीस कोस में ओरण (सुरक्षित चारागाह) है जिसमें बोरड़ी के सघन पेड़ हैं। जाल की सूखी टहनी को रोपकर हरा-भरा जाल का वृक्ष बनाकर उस स्मृति को चिरस्थायी बनाया गया था।
वह जाल का वृक्ष आज भी मन्दिर के पीछे बड़े वृक्ष के रूप में मौजूद है । यहाँ पर आवड़ देवी बोरड़ी के वृक्ष पर हिंडोला (झूला) डालकर झूली थीं । वह वृक्ष आज भी हींडेवाली बोरड़ी के रूप में विद्यमान है ।
महारावल देवराज द्वारा बनाए पुराने मन्दिर का नया निर्माण महारावल गज सिंह ने करवाया था जिसका वि. संवत् 1888 का एक शिलालेख भी है। इस मन्दिर का जीर्णोद्धार महारावल जुंहार सिंह ने फिर करवाया जिसका शिलालेख अंकित है मन्दिर में काले पत्थर पर आवड़ देवी की सभी बहिन-भाइयों सहित आकृतियाँ अंकित हैं।
आवड़ देवी मध्य में कमलासन पर पदमासन लगाए हुए विराजमान हैं। मूर्ति चार भुजाओं वाली है। हाथों में चूड़ धारण किए हुए है। प्रथम दाहिने हाथ में त्रिशूल, द्वितीय दाहिने हाथ में माला, बाएँ हाथ में खड्ग (तलवार), द्वितीय बाएँ हाथ में कमल का फूल है। गले में मुक्ताहार है।
छहों बहिनों के हाथों में चूड़ है। एक हाथ में महिष का सिर छेदन करता हुआ त्रिशूल है। सभी बहिनों का दूसरा हाथ एक दूसरी बहिन के कन्धे पर दिया हुआ है। छहों बहिनों के गले में मुक्ताहार है । इन देवियों का भाई महिरक्खा (महिरक्ष) बायीं तरफ छोर पर खड़ा है। इनके दाहिने हाथ में चंवर है जो आवड देवी पर डला रहे हैं। बाएँ हाथ में गदा है। आठों ही मूर्तियों पर छत्र हैं। मन्दिर के पुजारी भी शाक द्विपीय ब्राह्मण हैं।
आवड़ माता का इतिहास कथा मंदिर
Awar Mata History In Hindi
पहले पूजा जैसलमेर राज्य की देखरेख में होती थी। अब जगदम्बा सेवा समिति भादरिया की देखरेख में होती है। अखण्ड ज्योति प्रज्वलित रहती है। पूजा के पात्र, चंवर छड़ी, त्रिशूल आदि चाँदी के हैं। सोने के रलनजड़ित छत्र हैं। भादरिया राय का मन्दिर जोधपुर जैसलमेर रेल-मार्ग पर लाठी भादरिया रेलवे स्टेशन से पाँच किलोमीटर दूर स्थित है ।
जोधपुर जैसलमेर सड़क-मार्ग पर धोळिया नामक गाँव से छः किलोमीटर दूर स्थित है । मन्दिर पक्की सड़क जुड़ा हुआ है फार्म भी पास ही है। इस मन्दिर में पुस्तकों का भी एशिया चादन का प्रसिद्ध गायों का सबसे बड़ा संग्रहालय है जिसमें धार्मिक सत्साहित्य का संग्रह चल रहा है । पचास लाख रुपये की लागत से अलग ग्रन्थागार बनाया गया है।
इस स्थान को आधुनिक सन्दर्भों में प्रासंगिक बनाने का श्रेय यहीं पर बिराजमान निर्मल सम्प्रदाय से दीक्षित महात्मा श्री हरवंश सिंह जी निर्मल को है जो इस स्थल को मरुस्थलीय काशी का रूप देना चाहते हैं । इसी हेतु इन्होंने बन्धुत्व एवं जन-कल्याण प्रतिष्ठान श्री भादरिया राय, नामक संस्था का गठन किया है जिसका एकमात्र उद्देश्य समाज को नई दिशा, नई जागृति एवं नई चेतना से युक्त बनाना है। महात्मा जी भादरिया महाराज के नाम से ही जाने जाते हैं। महान कर्मयोगी हैं।
घंटियाल राय माता मंदिर
Ghantiyal Ray Mata Mandir
घण्टिये नामक हूंण राक्षस को मारने के कारण आवड़ देवी घण्टियाल राय के रूप में भी पूजी जाती हैं। तणोट से सात किलोमीटर दूर जैसलमेर सड़क पर इस देवी का मन्दिर है। भारतीय सेना के जवानों की आराध्य स्थली के रूप में यह स्थान भी प्रसिद्ध है।
1965 के भारत-पाक युद्ध में शत्रु-सेना के कई सैनिक इसी मन्दिर के पास भटककर समाप्त हो गए थे। इस घटना के बाद यह स्थान सैनिकों की श्रद्धा का केन्द्र बन गया। रामगढ़ के सोलंकी राजपूत इस स्थान की पूजा- अर्चना करते हैं।
जैसलमेर से सत्ताईस किलोमीटर उत्तर-पूर्व में आवड़ देवी काले डूंगर की राय के रूप में पूजी जाती है। सिन्ध से प्रस्थान कर आवड़ देवी ने आईतां नामक स्थान पर डेरा दिया था। आई आयाहता एथ का संक्षिप्त रूप ही आइतां है। यहीं से आवड़ देवी ने काले डूंगर पर निवास किया तथा डूंगरेचियां नाम से प्रसिद्धी पाई । जैसलमेर क्षेत्र के जन-सामान्य की आराधना स्थली यही स्थान रहा है।
इसी स्थान पर लौद्रवा का परमार शासक जसभांण दर्शनार्थ आया था। इसी कारण परमार क्षत्रियों का विशेष पूज्य स्थल यही मन्दिर है। इस प्राचीन मन्दिर का नव-निर्माण भी महारावल जुंहारसिंह ने करवाया था, जिसका शिलालेख भी लगा हुआ है। यह काले रंग के पहाड़ पर बना मन्दिर है । वर्ष में दो बार बड़े मेले लगते हैं।
जैसलमेर मोहनगढ़ सड़क पर काणोद नामक गाव से पश्चिम में पाँच किलोमीटर दूर यह स्थान भी पक्की सड़क से जुड़ा हुआ है। नीचे धर्मशाला व कुण्ड आदि बने हुए हैं। मन्दिर तक जाने के लिए पक्की सीढ़ियाँ हैं।
Degrai Mata Mandir
देगराय माता मंदिर
आवड़ देवी का अन्य नाम देगराय भी है। जैसलमेर से पूर्व में पचास किलोमीटर दूर देवी कोट सेतरावा सड़क पर देगराय का बड़ा भव्य मन्दिर है । यह मन्दिर देग के आकार के पानी के विशाल झीलनुमा तालाब की पाल पर बना हुआ है। यहाँ पर आवड़ देवी कुछ समय तक बिराजी थीं। इसीलिए देगराय नाम से प्रसिद्ध हुईं बारह कोसी ओरण है। दुष्ट साबड़ बूंगा को नष्ट करने व तड़ांगिये नामक खूंखार भैंसे को मारने की कथाएँ तथा एक ग्वाले भाखलिये को बचाने की कथाएँ इस स्थान से जुड़ी हुई हैं।
पूराने मन्दिर का नव-निर्माण 1798 में महारावल अखेसिंह द्वारा करवाया गया। मन्दिर का प्रवेश-द्वार व अन्य कई भवन माहेश्वरी महाजनों के बनाए हुए जिसका शिलालेख तोरण द्वार के भीतरी हिस्से में लगा हुआ है। इस मन्दिर में आवड़ देवी की सातों बहिनों की मूर्तियाँ स्थापित हैं। सातों ही बहिनें त्रिसूल से भैंसे का सिर बेध रही हैं। बाहर झूले में स्थापित मूर्ति में सातों बहिनों के अलावा भाई महिरक्ष भी दर्शित हैं।
इस मन्दिर के पुजारी पड़िहार शाखा के राजपूत हैं । महारावल मूलराज के निर्माण कार्यों का भी शिलालेख लगा हुआ है। जसोड़ भाटियों में इस मन्दिर की विशेष मान्यता है । मन्दिर से दो किलोमीटर दूर, जहाँ देवी ने साबड़ बूंगा को नष्ट किया था साबड़ामढ राय का मन्दिर बना हुआ है। वहाँ देवी इसी नाम से जानी जाती हैं।
लटियाल माता मंदिर
Latiyal Mata Mandir
फलौदी में लटियाळ देवी के रूप में भी आवड़ देवी की ही पूजा होती है । संवत् 1515 वि. में आसन कोट से परावर्तन करने के लिए देवी ने बैलगाड़ी में मूर्ति रखवाकर आदेश दिया कि जहाँ बैलगाड़ी रुके उसी स्थान पर मूर्ति स्थापित की जाए तो बैलगाड़ी फलौदी स्थान पर खेजड़ी के पेड़ के पास रुकी । खेजड़ी के दो भाग हो गए जो आज भी उसी रूप में मौजूद है। एक डाली टूटकर अलग गिरी वह अलग खेजड़ी के रूप में मौजूद है। पास ही लटियाळ देवी का कुआँ है । मन्दिर विशाल और भव्य है। आसपास में बड़ी मान्यता है।
इनके अतिरिक्त जैसलमेर के आसपास में आवड़ देवी जैसलमेर भूभाग पुराने नाम माढ (माड़) के सम्बोधन से माढराय, माढराणी के नाम से सम्बोधित की जाती हैं। अकाल वर्ष में चरखें द्वारा सूत-ऊन कातने की अलौकिक दक्षता के कारण कतियांणी के रूप में पूजी जाती हैं। इसी प्रकार नभेची या नभ रै पहाड़ां री राय; भूरे डूंगर री राय, गिरवर राय, आई आदि नामों से भी पूजी जाती है।
कानों में कुण्डल धारण करने के कारण आवड़ देवी आई नाथ Aai Nath के रूप में भी पूजी जाती हैं। सातों बहिनें नागण का रूप धारण कर नागणेची के रूप में पूज्य हैं। राठौड़ों में आवड देवी इसी रूप में पूजी जाती है। सिंहणी का रूप धारण करने के कारण आवड़ देवी साहांणों के नाम से भी पूजा जाती हैं। इसी प्रकार अपने भाई महिरक्ष को पीवणे साप से बचाने के कारण आवड़ देवी ऐहप गाँव में ऐहियांणी के नाम से पूजी जाती हैं।
अपनी कुल शाखा के नाम से साहुवांणी के नाम से तथा भोजासर प्रवास की स्मृति स्वरूप भोजासरी नाम से पूजा हैं, के एक जाती हैं। इन्हीं नामों से व अन्य नामों से अलग-अलग स्थानों पर आवड़ देवी के मन्दिर बने हुए हैं। इनमें प्राचीन बावन मन्दिरों की विशेष मान्यता है।
यों तो आवड़ देवी के सामान्य मन्दिर या स्थान तो हर गाँव में बने हुए हैं। उत्तरी भारत में हर बच्चे के गले में भी आवड़ देवी की सात बहिनों की आकृति वाला सोने-चाँदी का फुलड़ा पहनने की परम्परा भी चली आ रही है।
उत्तरी भारत के प्रसिद्ध शक्तिपीठ देशनोक में भी तेमडा राय का प्रसिद्ध मन्दिर है । इस मन्दिर में करणी जी द्वारा पूजा की जाने वाली आवड़ देवी की सातों बहिनों की सात आकृतियों वाली मूर्ति व काठ की मंजूषा भी है । देशनोक के करणी मन्दिर में भी आवड़ देवी का संगमरमर का अलग मन्दिर बना हुआ है।
कोलायत के पास मोखां नामक गाँव के पास भी तेमड़ा राय का प्रसिद्ध मन्दिर है। रतनगढ (चूरू) के पास पाबूसर गाँव में प्रसिद्ध कवि सूजा बीठू द्वारा निर्मित आवड़ देवी का मन्दिर मौजूद है, जो डूंगरेचा के मन्दिर के रूप में जाना जाता है। करणी जी के जन्म-स्थान सुवाप नामक गाँव में भी करणी जी के हाथ का बनाया हुआ आवड़ देवी का गोलमढ है। उसमें भी आवड़ जी की सात आकृतियों वाली मूर्ति है ।
बीबीराणी खैरथल (अलवर) में भी आवड़ देवी का प्रसिद्ध मन्दिर है । जिसे हिन्दू एवं मेव (मुसलमान) समान रूप से मानते हैं। जैसलमेर के एक चारण देवियों के मन्दिर में भी पत्थर पर सात देवियों की आकृतियों के नीचे डूंगरेचा शब्द अंकित है । इसी प्रकार सात देवियों की अन्य आकृतियों के पत्थर पर श्रीसांहाधै शब्द भी अंकित है ।
तेमडा राय के मन्दिर में भी एक शिलालेख में श्री सांगियां जी शब्द अंकित है । इसी प्रकार चारण देवियों के मन्दिर के एक अन्य प्रस्तर फलक पर सात देवियों की आकृतियों के नीचे 'नागणेचा' शब्द अंकित है। हाकड़ा दरियाव सोखने व लक्खी बनजारे से महरांण का मुहाना पटवाकर आसामाई कोह (पहाड़) पर आसापूरा का मन्दिर विद्यमान है । पूरे क्षेत्र को वीरानी में बदलने की कथाएँ भी आवड़ देवी से जुड़ी हुई हैं। काबुल में भी आसामाई पहाड़ी पर आशापुरा माता का मंदिर विद्यमान है।
जय मा आवड़।
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आवड़ माता का इतिहास कथा मंदिर
Awar Mata History In Hindi
तेमड़ा राय माता मंदिर
लटियाल माता मंदिर
भादरिया राय मंदिर
तनोट राय माता मंदिर
घंटियाली माता मंदिर
देगराय माता मंदिर
स्वांगिया माता मंदिर
Awar Mata History In Hindi
चारणों में यह देवी हिंगळाज के पूर्ण अवतार के रूप में विख्यात है। बाड़मेर जिले की धोरी मन्ना तहसील से छः कोस दूर साहुवा शाखा के चारण चाळक ने अपने नाम से एक ग्राम आबाद किया जो चाळकनूं कहलाता है।
इसी चाळकनूं ग्राम में म्हादा के पुत्र मामड़ के घर महडू शाखा की चारण मोह वृत्ति की कुक्षि से आवड़ देवी का जन्म संवत् 888 वि. की चैत्र सुदी नवमी शनिवार को हुआ था ।
चाळकनूं ग्राम के पास जूंनी जाळ के नाम से विख्यात सात जाळों वाले स्थान पर आवड़ देवी के जन्म की लोक प्रचलित मान्यता है। इसीलिए इस देवी का चाळकनेची चाळकराय नाम विख्यात हुआ। कुछ लोग इनका जन्म ननिहाल माढवा में भी मानते हैं जो पहले महड़ू चारणों का शासन (स्वयं शासन जागीर) था । कुछ लोग इनका जन्म-स्थान झोकरवाड़ा नामक स्थान भी मानते हैं।
चाळकनूं ग्राम में आवड़ देवी का कलात्मक खम्भों वाला खण्डहर मन्दिर आज भी मौजूद है। वहाँ सिंह पर सवार चतुर्भुजी मूर्ति है। एक हाथ में तलवार, एक से आशीर्वाद, एक में चक्र व एक में खप्पर लिए हुए है।
आठवीं शताब्दी में हूंण आक्रमणकारियों से सारा क्षेत्र आतंकित था । हूंण बड़े निर्दयी थे। ये मनुष्यों के सिर काट-काटकर झूले लगा देते थे। गाँवों को जला देते थे । पशुओं को खा जाते थे । आज भी हमारे यहाँ कहावतें चलती हैं कि 'क्यूं थारी हूंण बोलै है', थारी हूंण आयगी। राक्षसी कृत्य करने के कारण ये हूंण देत्य कहलाने लगे ।
आवड़ देवी ने इन्होंने बावन हूंण राक्षसों को मारा, जिनमें से तेमड़ा, घण्टिया आदि कुख्यात हूंण राक्षस थे। इसीलिए बावन ही इनके पवाड़े, बावन ही नाम, बावन ही मन्दिर तथा बावन ही ओरण हैं।
जैसलमेर राजघराने की तो ये कुलदेवी हैं। ये सात बहिनें थीं। सातों ही शक्ति का अवतार मानी जाती हैं। इसीलिए एक ही शिला पर सातों बहिनों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की हुई मिलती हैं। काष्ठ फलक पर भी सातों बहिनों की आकृतियाँ अंकित मिलती हैं। अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग बहिनों की पूजा होती है। इनकी पूजा हिन्दू-मुसलमान समान रूप से करते हैं।
आवड़ देवी ने सिंध के ऊमर सुमरा के राज्य का नाश किया जिसके बारे में यह मान्यता है कि इनके रूप पर मोहित होकर उसने विवाह का प्रस्ताव रखा था, जिसे अस्वीकार कर वहाँ से पलायन कर जैसलमेर के पास गिरळाओं नामक पर्वत पर तेमडा नामक हूंण राक्षस को नष्ट कर वहीं निवास किया और तेमड़ा राय के नाम से प्रसिद्धी पाई।
Temda Rai Mata Mandir
तेमड़ा राय माता मंदिर
तेमड़ा राय का मन्दिर जैसलमेर से 21 किलोमीटर (सात कोस) दक्षिण में गिरळाओं नामक पहाड़ पर स्थित है । जैसलमेर से पक्की सड़क बनी हुई है । यह स्थान हिंगळाज के बाद सबसे बड़ा शक्तिपीठ माना जाता है। यह स्थान दूसरे हिंगळाज के नाम से भी पुकारा जाता है।
तेमड़ा पर्वत पर एक बड़ी गुफा है। इसी में आवड़ देवी का स्थान है। यह गुफा भीतर से बहुत बड़ी है जिसको आवड़ देवी ने स्वयं एक शिला द्वारा बन्द कर दिया। यह शिला तारंग शिला के नाम से प्रसिद्ध है। श्रद्धालु जन आज भी इस शिला के दर्शन करते हैं। ऐसी किंवदन्ती है कि यह गुफा पश्चिम में हिंगळाज देवी की गुफा से जुड़ी हुई है जिन पर सात देवियों की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं ।
मुख्य मन्दिर गुफा के सामने एक बुर्जाकार भवन पर बनाया गया है। बीकानेर के महाराजा रायसिंह ने तेमड़ा राय की यात्रा की स्मृति में इस बुर्ज का निर्माण कराया था। कालान्तर में इस बुर्ज का विस्तार व अन्य निर्माण कार्य भी होते रहे । जो देवी के भुरज बंगले के रूप में ही विख्यात है।
पहाड़ की तलहटी में एक छोटा-सा तालाब है जिसे कुण्ड कहा जाता है । इसी में स्नान कर यात्री ऊपर देवी के दर्शनार्थ जाता है । ऊपर भी एक कुण्ड बना हुआ है। कुछ भवन भी बने हुए हैं। मुख्य मन्दिर में सिंहवाहिनी अष्टभुजा वाली देवी की प्रतिमा है। गुफा में ही देवी का पालना भी है। एक पीतल की घण्टिका वि. सं. 1885 की महारावल श्री गजसिंह जी जैसलमेर द्वारा चढ़ाई हुई है।
आवड़ माता का इतिहास कथा मंदिर
Awar Mata History In Hindi
तेमडा राय के भुरज बंगले का शिलालेख महारावल जुंहारसिंह जैसलमेर के समय का है। महारावल मूलराज जैसलमेर का भी एक शिलालेख है। जिसका पाठ इस प्रकार है-
श्री आदि देव्यै नमः। श्री आवड़ादि सप्त देव्यै नमः । श्री डूंगरेचियां रे थांन पर साळ कराई महाराजाधिराज महारावल श्री मूलराज मिती वैसाख बदी 4 संवत 1634 में महारावल अमरसिंह जी जैसलमेर ने तेमड़ा राय के पहाड़ की पाज बंधाई. तथा बुर्ज का जीर्णोद्धार करवाया।
महारावल जसवन्तसिंह जी जैसलमेर ने ऊपर वाली बुर्ज का निर्माण 1760 में करवाया जिसका शिलालेख बाहर वाली साल के खम्भे पर अंकित है । इस प्रकार महारावल देवराज से लेकर जुंहारसिंह जी तक निर्माण कार्य होते रहे तथा अन्य लोगों के सहयोग का भी जुंहारसिंह जी के शिलालेख में उल्लेख मिलता है। मुख्य मन्दिर के खम्भे पर विक्रम सं. 1432 का अस्पष्ट आलेख है। मूलचन्द ठेकेदार बाड़मेर वाले की धर्मशाला बनाई हुई है। ऊपर जाने के लिए खुर्रा व सीढ़ियाँ बनी हुई हैं।
भोपां गाँव के गोगलिया भाटी देवी के पुजारी हैं। तेमड़ा राय का बड़ा मेला भाद्रपद शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी की रात्रि को व चतुर्दशी को दिन में भरता है। इसी प्रकार माघ महीने की त्रयोदशी व चतुर्दशी को भी बड़ा मेला भरता है। वैसे तो हर रोज ही दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है। नवरात्रों में भी खूब दर्शनार्थी आते हैं।
उसी क्षेत्र में आवड़ देवी के अनेक नाम प्रचलित हैं । उनकी भी अपनी- अपनी अन्तर्कथाएँ हैं । कुछ का विवरण इस प्रकार है -
सूमरों का राज्य नष्ट कर आवड़ देवी ने दक्षिणी पंजाब के सम्माणा क्षेत्र के भाटी क्षत्रियों को दिया जिसका उपकार सम्मा के वंशज सामेचा व जाड़ेचा क्षत्रिय अब तक मानते हैं।
सम्मा सट्टा व सम्माणा सामेचा (सम्मा) क्षत्रियों में जाम सम्मा की दसवीं पीढ़ी में जाम लखियार के शासन में थे जाम लखियार को, राज्य प्रदान शा पूरी करने के कारण आवड़ देवी उनमें आशापूरा राय के नाम से पूजी जाती हैं तथा समस्त सामेचा जो अपने पूर्वज जाम जाडा के नाम से जाड़ेचा कहलाते हैं। आवड़ देवी को इसी नाम से सम्बोधित करते हैं एवं कुल देवी मानते हैं।
Tanot Mata Mandir
तणोट राय मंदिर
राव तणु ने आवड़ देवी की आज्ञा व आशीर्वाद से कोटनुमा मन्दिर व किला बनवाया तथा उसे अपनी सुरक्षा की ओट सदृश माना। इसीलिए वहाँ आवड़ देवा तणोट राय के रूप में पूजी जाती है। आवड देवी के हाथों से ही इस मन्दिर व कोट की प्रतिष्ठा हुई। तणोट जैसलमेर से 114 किलोमीटर दूर सीमा पर स्थित स्थान है जा पक्की सड़क से जुड़ा हुआ है।
पहले मन्दिर की पूजा जैसलमेर राज्य की तरफ से होता थी। शाक द्विपीय (सेवग) ब्राह्मण बारी-बारी से सेवा करते थे । अब सीमा सुरक्षा बल का पुजारी पूजा-अर्चना करता है। अब सेना के जवानों की आराध्या देवी के रूप में आवड़े देवा को बहुत मान्यता हो गई है।
भारत-पाक यद्ध के बाद भारतीय सेना द्वारा मन्दिर का जीर्णोद्धार करवा दिया गया है। युद्ध सम्बन्धी बहुत से चमत्कारों का धटन भी लोक-प्रचलित हो गई हैं। उस यद्ध में पकडे गए पाकिस्तानी ब्रिगेडियर हुर्सन राह ने देवी के चमत्कार की बात स्वीकार की थी ।
Swangiya Mata Mandir
स्वांगिया माता मंदिर
राव तणु को सांग (शक्ति-तलवार) पर बिराजकर दर्शन देने के कारण आवड देवी सांगियां (सांहांधै, सहांगीयां) देवी के रूप में मान्य हुई। जैसलमेर से तीन किलोमीटर उत्तर पर्व की तरफ समतल पहाड़ की चोटी पर सांगियां जी का मन्दिर बना हुआ है। भाद्रपद माघ व नवरात्रों में मेले लगते हैं। सेवग ही पूजा-अर्चना करते हैं। मन्दिर के मुख्य द्वार पर महारावल रणजीत सिंह द्वारा करवाए गए निर्माण कार्य का शिलालेख भी लगा हुआ है।
राव तणु के पुत्र विजयराज ने आवड़ देवी की आज्ञा से बींजणोट नामक नगर वसाकर एक बहुत बड़ा किला बनाया, जहाँ आवड़ देवी का बहुत बड़ा मन्दिर बनाकर मूर्ति स्थापित की तथा नाम बींजासण माता रखा। आवड़ देवी आदि सातों बहिनें ही बींजासण माता कहलाती हैं। उस मन्दिर में सातों बहिनों की अलग-अलग प्रतिमाएँ स्थापित की थीं,जिनमें से अब केवल चार शेष हैं।
विजय राज को आवड़ देवी द्वारा सोने की चूड़ देने की भी लोक-मान्यता है। चूड़ के ही कारण विजयराज चूड़ाळा (चूड़ वाला) विजयराज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सुगन चिड़ी (सोनचिड़ी) या रूपा रेल को भी आवड़ देवी का ही स्वरूप समझा जाता है। इसी कारण जैसलमेर राज्य के राजचिह्न में सांग (शक्ति ) लिए हुए और चूड़ पहने आवड़ देवी के दाहिने हाथ पर शकुन चिड़ी का स्थान रहा है ।
Bhadariya Ray Mandir
भादरिया राय मंदिर
आवड़ देवी अपने एक भक्त बहादुरा नामक भाटी (राव तणु के छोटे भाई) की सामान्य-जन की तरह से की गई सेवा से प्रसन्न होकर वहाँ पर उसी के नाम से अपनी पहचान कायम कर भादरिया (बहादुरिया) राय के नाम से प्रसिद्ध हुई।
जहाँ पर जैसलमेर के महाराजा को भी वर्ष में दो बार अनिवार्य रूप से दर्शनार्थ जाने की परम्परा थी यहीं पर राव तणु ने सर्वप्रथम देवी के दर्शन किए थे । यह स्थान बोर टीबे के रूप में प्रसिद्ध है। आज भी चौबीस कोस में ओरण (सुरक्षित चारागाह) है जिसमें बोरड़ी के सघन पेड़ हैं। जाल की सूखी टहनी को रोपकर हरा-भरा जाल का वृक्ष बनाकर उस स्मृति को चिरस्थायी बनाया गया था।
वह जाल का वृक्ष आज भी मन्दिर के पीछे बड़े वृक्ष के रूप में मौजूद है । यहाँ पर आवड़ देवी बोरड़ी के वृक्ष पर हिंडोला (झूला) डालकर झूली थीं । वह वृक्ष आज भी हींडेवाली बोरड़ी के रूप में विद्यमान है ।
महारावल देवराज द्वारा बनाए पुराने मन्दिर का नया निर्माण महारावल गज सिंह ने करवाया था जिसका वि. संवत् 1888 का एक शिलालेख भी है। इस मन्दिर का जीर्णोद्धार महारावल जुंहार सिंह ने फिर करवाया जिसका शिलालेख अंकित है मन्दिर में काले पत्थर पर आवड़ देवी की सभी बहिन-भाइयों सहित आकृतियाँ अंकित हैं।
आवड़ देवी मध्य में कमलासन पर पदमासन लगाए हुए विराजमान हैं। मूर्ति चार भुजाओं वाली है। हाथों में चूड़ धारण किए हुए है। प्रथम दाहिने हाथ में त्रिशूल, द्वितीय दाहिने हाथ में माला, बाएँ हाथ में खड्ग (तलवार), द्वितीय बाएँ हाथ में कमल का फूल है। गले में मुक्ताहार है।
छहों बहिनों के हाथों में चूड़ है। एक हाथ में महिष का सिर छेदन करता हुआ त्रिशूल है। सभी बहिनों का दूसरा हाथ एक दूसरी बहिन के कन्धे पर दिया हुआ है। छहों बहिनों के गले में मुक्ताहार है । इन देवियों का भाई महिरक्खा (महिरक्ष) बायीं तरफ छोर पर खड़ा है। इनके दाहिने हाथ में चंवर है जो आवड देवी पर डला रहे हैं। बाएँ हाथ में गदा है। आठों ही मूर्तियों पर छत्र हैं। मन्दिर के पुजारी भी शाक द्विपीय ब्राह्मण हैं।
आवड़ माता का इतिहास कथा मंदिर
Awar Mata History In Hindi
पहले पूजा जैसलमेर राज्य की देखरेख में होती थी। अब जगदम्बा सेवा समिति भादरिया की देखरेख में होती है। अखण्ड ज्योति प्रज्वलित रहती है। पूजा के पात्र, चंवर छड़ी, त्रिशूल आदि चाँदी के हैं। सोने के रलनजड़ित छत्र हैं। भादरिया राय का मन्दिर जोधपुर जैसलमेर रेल-मार्ग पर लाठी भादरिया रेलवे स्टेशन से पाँच किलोमीटर दूर स्थित है ।
जोधपुर जैसलमेर सड़क-मार्ग पर धोळिया नामक गाँव से छः किलोमीटर दूर स्थित है । मन्दिर पक्की सड़क जुड़ा हुआ है फार्म भी पास ही है। इस मन्दिर में पुस्तकों का भी एशिया चादन का प्रसिद्ध गायों का सबसे बड़ा संग्रहालय है जिसमें धार्मिक सत्साहित्य का संग्रह चल रहा है । पचास लाख रुपये की लागत से अलग ग्रन्थागार बनाया गया है।
इस स्थान को आधुनिक सन्दर्भों में प्रासंगिक बनाने का श्रेय यहीं पर बिराजमान निर्मल सम्प्रदाय से दीक्षित महात्मा श्री हरवंश सिंह जी निर्मल को है जो इस स्थल को मरुस्थलीय काशी का रूप देना चाहते हैं । इसी हेतु इन्होंने बन्धुत्व एवं जन-कल्याण प्रतिष्ठान श्री भादरिया राय, नामक संस्था का गठन किया है जिसका एकमात्र उद्देश्य समाज को नई दिशा, नई जागृति एवं नई चेतना से युक्त बनाना है। महात्मा जी भादरिया महाराज के नाम से ही जाने जाते हैं। महान कर्मयोगी हैं।
घंटियाल राय माता मंदिर
Ghantiyal Ray Mata Mandir
घण्टिये नामक हूंण राक्षस को मारने के कारण आवड़ देवी घण्टियाल राय के रूप में भी पूजी जाती हैं। तणोट से सात किलोमीटर दूर जैसलमेर सड़क पर इस देवी का मन्दिर है। भारतीय सेना के जवानों की आराध्य स्थली के रूप में यह स्थान भी प्रसिद्ध है।
1965 के भारत-पाक युद्ध में शत्रु-सेना के कई सैनिक इसी मन्दिर के पास भटककर समाप्त हो गए थे। इस घटना के बाद यह स्थान सैनिकों की श्रद्धा का केन्द्र बन गया। रामगढ़ के सोलंकी राजपूत इस स्थान की पूजा- अर्चना करते हैं।
जैसलमेर से सत्ताईस किलोमीटर उत्तर-पूर्व में आवड़ देवी काले डूंगर की राय के रूप में पूजी जाती है। सिन्ध से प्रस्थान कर आवड़ देवी ने आईतां नामक स्थान पर डेरा दिया था। आई आयाहता एथ का संक्षिप्त रूप ही आइतां है। यहीं से आवड़ देवी ने काले डूंगर पर निवास किया तथा डूंगरेचियां नाम से प्रसिद्धी पाई । जैसलमेर क्षेत्र के जन-सामान्य की आराधना स्थली यही स्थान रहा है।
इसी स्थान पर लौद्रवा का परमार शासक जसभांण दर्शनार्थ आया था। इसी कारण परमार क्षत्रियों का विशेष पूज्य स्थल यही मन्दिर है। इस प्राचीन मन्दिर का नव-निर्माण भी महारावल जुंहारसिंह ने करवाया था, जिसका शिलालेख भी लगा हुआ है। यह काले रंग के पहाड़ पर बना मन्दिर है । वर्ष में दो बार बड़े मेले लगते हैं।
जैसलमेर मोहनगढ़ सड़क पर काणोद नामक गाव से पश्चिम में पाँच किलोमीटर दूर यह स्थान भी पक्की सड़क से जुड़ा हुआ है। नीचे धर्मशाला व कुण्ड आदि बने हुए हैं। मन्दिर तक जाने के लिए पक्की सीढ़ियाँ हैं।
Degrai Mata Mandir
देगराय माता मंदिर
आवड़ देवी का अन्य नाम देगराय भी है। जैसलमेर से पूर्व में पचास किलोमीटर दूर देवी कोट सेतरावा सड़क पर देगराय का बड़ा भव्य मन्दिर है । यह मन्दिर देग के आकार के पानी के विशाल झीलनुमा तालाब की पाल पर बना हुआ है। यहाँ पर आवड़ देवी कुछ समय तक बिराजी थीं। इसीलिए देगराय नाम से प्रसिद्ध हुईं बारह कोसी ओरण है। दुष्ट साबड़ बूंगा को नष्ट करने व तड़ांगिये नामक खूंखार भैंसे को मारने की कथाएँ तथा एक ग्वाले भाखलिये को बचाने की कथाएँ इस स्थान से जुड़ी हुई हैं।
पूराने मन्दिर का नव-निर्माण 1798 में महारावल अखेसिंह द्वारा करवाया गया। मन्दिर का प्रवेश-द्वार व अन्य कई भवन माहेश्वरी महाजनों के बनाए हुए जिसका शिलालेख तोरण द्वार के भीतरी हिस्से में लगा हुआ है। इस मन्दिर में आवड़ देवी की सातों बहिनों की मूर्तियाँ स्थापित हैं। सातों ही बहिनें त्रिसूल से भैंसे का सिर बेध रही हैं। बाहर झूले में स्थापित मूर्ति में सातों बहिनों के अलावा भाई महिरक्ष भी दर्शित हैं।
इस मन्दिर के पुजारी पड़िहार शाखा के राजपूत हैं । महारावल मूलराज के निर्माण कार्यों का भी शिलालेख लगा हुआ है। जसोड़ भाटियों में इस मन्दिर की विशेष मान्यता है । मन्दिर से दो किलोमीटर दूर, जहाँ देवी ने साबड़ बूंगा को नष्ट किया था साबड़ामढ राय का मन्दिर बना हुआ है। वहाँ देवी इसी नाम से जानी जाती हैं।
लटियाल माता मंदिर
Latiyal Mata Mandir
फलौदी में लटियाळ देवी के रूप में भी आवड़ देवी की ही पूजा होती है । संवत् 1515 वि. में आसन कोट से परावर्तन करने के लिए देवी ने बैलगाड़ी में मूर्ति रखवाकर आदेश दिया कि जहाँ बैलगाड़ी रुके उसी स्थान पर मूर्ति स्थापित की जाए तो बैलगाड़ी फलौदी स्थान पर खेजड़ी के पेड़ के पास रुकी । खेजड़ी के दो भाग हो गए जो आज भी उसी रूप में मौजूद है। एक डाली टूटकर अलग गिरी वह अलग खेजड़ी के रूप में मौजूद है। पास ही लटियाळ देवी का कुआँ है । मन्दिर विशाल और भव्य है। आसपास में बड़ी मान्यता है।
इनके अतिरिक्त जैसलमेर के आसपास में आवड़ देवी जैसलमेर भूभाग पुराने नाम माढ (माड़) के सम्बोधन से माढराय, माढराणी के नाम से सम्बोधित की जाती हैं। अकाल वर्ष में चरखें द्वारा सूत-ऊन कातने की अलौकिक दक्षता के कारण कतियांणी के रूप में पूजी जाती हैं। इसी प्रकार नभेची या नभ रै पहाड़ां री राय; भूरे डूंगर री राय, गिरवर राय, आई आदि नामों से भी पूजी जाती है।
कानों में कुण्डल धारण करने के कारण आवड़ देवी आई नाथ Aai Nath के रूप में भी पूजी जाती हैं। सातों बहिनें नागण का रूप धारण कर नागणेची के रूप में पूज्य हैं। राठौड़ों में आवड देवी इसी रूप में पूजी जाती है। सिंहणी का रूप धारण करने के कारण आवड़ देवी साहांणों के नाम से भी पूजा जाती हैं। इसी प्रकार अपने भाई महिरक्ष को पीवणे साप से बचाने के कारण आवड़ देवी ऐहप गाँव में ऐहियांणी के नाम से पूजी जाती हैं।
अपनी कुल शाखा के नाम से साहुवांणी के नाम से तथा भोजासर प्रवास की स्मृति स्वरूप भोजासरी नाम से पूजा हैं, के एक जाती हैं। इन्हीं नामों से व अन्य नामों से अलग-अलग स्थानों पर आवड़ देवी के मन्दिर बने हुए हैं। इनमें प्राचीन बावन मन्दिरों की विशेष मान्यता है।
यों तो आवड़ देवी के सामान्य मन्दिर या स्थान तो हर गाँव में बने हुए हैं। उत्तरी भारत में हर बच्चे के गले में भी आवड़ देवी की सात बहिनों की आकृति वाला सोने-चाँदी का फुलड़ा पहनने की परम्परा भी चली आ रही है।
उत्तरी भारत के प्रसिद्ध शक्तिपीठ देशनोक में भी तेमडा राय का प्रसिद्ध मन्दिर है । इस मन्दिर में करणी जी द्वारा पूजा की जाने वाली आवड़ देवी की सातों बहिनों की सात आकृतियों वाली मूर्ति व काठ की मंजूषा भी है । देशनोक के करणी मन्दिर में भी आवड़ देवी का संगमरमर का अलग मन्दिर बना हुआ है।
कोलायत के पास मोखां नामक गाँव के पास भी तेमड़ा राय का प्रसिद्ध मन्दिर है। रतनगढ (चूरू) के पास पाबूसर गाँव में प्रसिद्ध कवि सूजा बीठू द्वारा निर्मित आवड़ देवी का मन्दिर मौजूद है, जो डूंगरेचा के मन्दिर के रूप में जाना जाता है। करणी जी के जन्म-स्थान सुवाप नामक गाँव में भी करणी जी के हाथ का बनाया हुआ आवड़ देवी का गोलमढ है। उसमें भी आवड़ जी की सात आकृतियों वाली मूर्ति है ।
बीबीराणी खैरथल (अलवर) में भी आवड़ देवी का प्रसिद्ध मन्दिर है । जिसे हिन्दू एवं मेव (मुसलमान) समान रूप से मानते हैं। जैसलमेर के एक चारण देवियों के मन्दिर में भी पत्थर पर सात देवियों की आकृतियों के नीचे डूंगरेचा शब्द अंकित है । इसी प्रकार सात देवियों की अन्य आकृतियों के पत्थर पर श्रीसांहाधै शब्द भी अंकित है ।
तेमडा राय के मन्दिर में भी एक शिलालेख में श्री सांगियां जी शब्द अंकित है । इसी प्रकार चारण देवियों के मन्दिर के एक अन्य प्रस्तर फलक पर सात देवियों की आकृतियों के नीचे 'नागणेचा' शब्द अंकित है। हाकड़ा दरियाव सोखने व लक्खी बनजारे से महरांण का मुहाना पटवाकर आसामाई कोह (पहाड़) पर आसापूरा का मन्दिर विद्यमान है । पूरे क्षेत्र को वीरानी में बदलने की कथाएँ भी आवड़ देवी से जुड़ी हुई हैं। काबुल में भी आसामाई पहाड़ी पर आशापुरा माता का मंदिर विद्यमान है।
जय मा आवड़।
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आवड़ माता का इतिहास कथा मंदिर
Awar Mata History In Hindi
तेमड़ा राय माता मंदिर
लटियाल माता मंदिर
भादरिया राय मंदिर
तनोट राय माता मंदिर
घंटियाली माता मंदिर
देगराय माता मंदिर
स्वांगिया माता मंदिर
7 टिप्पणियाँ
Nice bhai aur dala kr yrr
जवाब देंहटाएं52 sakiti pith avad ma ke batane aur shahi jankari dene par Dannyvad .
हटाएंवास्तव में आज भी चालकना बाडमेर राजस्थान माता जी का बड़ा भव्य मंदिर है जरुर दर्शन करें
जवाब देंहटाएंजय माँ तेम्बडाराय
जवाब देंहटाएंआवड़ माता का जन्म व प्रमुख चमत्कार शेयर करे
जवाब देंहटाएंजय कच की आशापुरा (आवड ) मा की जय
जवाब देंहटाएंJai aavad mataji
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